मेरे रुखसत के बख़त
पूछा था उसने,
" जा रहे हो जाने के लिए ? "
या
" जा रहे हो आने के लिए ? "
तमाम दिन अब तो जल चुके है सूरज के तले
लेकिन हर रात
उसके वो आख़िरी लफ्ज़
टिमटिमाते हैं जहन में तारों की तरह.
" जा रहे हो जाने के लिए ? "
या
" जा रहे हो आने के लिए ? "
मैं रोज़ दर रोज़
करवट बदल,आँखों को ढक सो जाता हूँ.
फिर भी,
कभी कभी,
देर रात पाया है मैंनै
खुद को खड़े हुए
ड्योढ़ी पे.
- यात्री
5 comments:
sunder... khaas kar dhyodi ekdam sateek hai...
sexy is the word....go on....take time out to write a ballad now....the end line takes the cake....
Nice poem...i find it very touching
'Usne Kaha ttha' kahani yaad aa gayi is kavita ko pad ke. Naa jane kyon...
lovely one !!
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